Intejamaat naye sire se sambhale jaayen

इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें|

जितने कमज़र्फ़ हैं महफ़िल से निकाले जायें|

मेरा घर आग की लपटों में छुपा है लेकिन,
जब मज़ा है तेरे आँगन में उजाले जायें|

ग़म सलामत है तो पीते ही रहेंगे लेकिन,
पहले मैख़ाने की हालत सम्भाले जायें|

ख़ाली वक़्तों में कहीं बैठ के रोलें यारो,
फ़ुर्सतें हैं तो समन्दर ही खगांले जायें|

ख़ाक में यूँ न मिला ज़ब्त की तौहीन न कर,
ये वो आँसू हैं जो दुनिया को बहा ले जायें|

हम भी प्यासे हैं ये एहसास तो हो साक़ी को,
ख़ाली शीशे ही हवाओं में उछाले जायें|

आओ शहर में नये दोस्त बनायें “राहत”
आस्तीनों में चलो साँप ही पाले जायें|

Rahat indori

Masjidon ke sahen tak jaana bahut dushwar tha

मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था|

देर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था|

अपने ही फैलाओ के नशे में खोया था दरख़्त,
और हर मासूम टहनी पर फलों का भार था|

देखते ही देखते शहरों की रौनक़ बन गया,
कल यही चेहरा था जो हर आईने पे भार था|

सब के दुख सुख़ उस के चेहरे पे लिखे पाये गये,
आदमी क्या था हमारे शहर का अख़बार था|

अब मोहल्ले भर के दरवाज़ों पे दस्तक है नसीब,
एक ज़माना था कि जब मैं भी बहुत ख़ुद्दार था|

काग़ज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई,
हम ने जो सोचा तेरे बारे में सब बेकार था|

Rahat indori

Aankh pyasi hai koi manzar de

आँख प्यासी है कोई मन्ज़र दे,

इस जज़ीरे को भी समन्दर दे|

अपना चेहरा तलाश करना है,
गर नहीं आइना तो पत्थर दे|

बन्द कलियों को चाहिये शबनम, 
इन चिराग़ों में रोशनी भर दे|

पत्थरों के सरों से कर्ज़ उतार,
इस सदी को कोई पयम्बर दे|

क़हक़हों में गुज़र रही है हयात,
अब किसी दिन उदास भी कर दे|

फिर न कहना के ख़ुदकुशी है गुनाह,
आज फ़ुर्सत है फ़ैसला कर दे|

Rahat indori

Shahar mein dhoondh raha hoon ki sahara de de

शहर में ढूंढ रहा हूँ कि सहारा दे दे|

कोई हातिम जो मेरे हाथ में कासा दे दे|

पेड़ सब नगेँ फ़क़ीरों की तरह सहमे हैं,
किस से उम्मीद ये की जाये कि साया दे दे|

वक़्त की सगँज़नी नोच गई सारे नक़श,
अब वो आईना कहाँ जो मेरा चेहरा दे दे|

दुश्मनों की भी कोई बात तो सच हो जाये,
आ मेरे दोस्त किसी दिन मुझे धोखा दे दे|

मैं बहुत जल्द ही घर लौट के आ जाऊँगा,
मेरी तन्हाई यहाँ कुछ दिनों पेहरा दे दे|

डूब जाना ही मुक़द्दर है तो बेहतर वरना,
तूने पतवार जो छीनी है तो तिनका दे दे|

जिस ने क़तरों का भी मोहताज किया मुझ को,
वो अगर जोश में आ जाये तो दरिया दे दे|

तुम को “राहत” की तबीयत का नहीं अन्दाज़ा,
वो भिखारी है मगर माँगो तो दुनिया दे दे|

Rahat indori

Pareshaniyo pe likhe mukaddar nahi mile

पेशानियों पे लिखे मुक़द्दर नहीं मिले|

दस्तार कहाँ मिलेंगे जहाँ सर नहीं मिले|

आवारगी को डूबते सूरज से रब्त है,
मग़्रिब के बाद हम भी तो घर पर नहीं मिले|

कल आईनों का जश्न हुआ था तमाम रात,
अन्धे तमाशबीनों को पत्थर नहीं मिले|

मैं चाहता था ख़ुद से मुलाक़ात हो मगर,
आईने मेरे क़द के बराबर नहीं मिले|

परदेस जा रहे हो तो सब देखते चलो,
मुमकिन है वापस आओ तो ये घर नहीं मिले|

Rahat indori

Safar ki had hai wahan tak ki kuch nishaan rahe

सफ़र की हद है वहाँ तक कि कुछ निशान रहे|

चले चलो के जहाँ तक ये आसमान रहे|

ये क्या उठाये क़दम और आ गई मन्ज़िल,
मज़ा तो जब है के पैरों में कुछ थकान रहे|

वो शख़्स मुझ को कोई जालसाज़ लगता है,
तुम उस को दोस्त समझते हो फिर भी ध्यान रहे|

मुझे ज़मीं की गहराईयों ने दाब लिया,
मैं चाहता था मेरे सर पे आसमान रहे|

अब अपने बीच मरासिम नहीं अदावत है,
मगर ये बात हमारे ही दर्मियान रहे|

मगर सितारों की फसलें उगा सका न कोई,
मेरी ज़मीन पे कितने ही आसमान रहे|

वो एक सवाल है फिर उस का सामना होगा,
दुआ करो कि सलामत मेरी ज़बान रहे|

Rahat indori

Samandaron mein muafik hawa chalata hai

समन्दरों में मुआफिक हवा चलाता है

जहाज़ खुद नहीं चलते खुदा चलाता है


ये जा के मील के पत्थर पे कोई लिख आये
वो हम नहीं हैं, जिन्हें रास्ता चलाता है

वो पाँच वक़्त नज़र आता है नमाजों में
मगर सुना है कि शब को जुआ चलाता है

ये लोग पांव नहीं जेहन से अपाहिज हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है

हम अपने बूढे चिरागों पे खूब इतराए
और उसको भूल गए जो हवा चलाता है

Rahat indori

Agar khilaf hai hone do

अगर ख़िलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है 

ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है 

लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में 
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है 

मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन 
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है 

हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है 
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है 

जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है 

सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में 
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है

Rahat indori

Log har mode pe ruk ruk ke sambhalte kyon hai

लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यों हैं

इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं

मैं न जुगनू हूँ, दिया हूँ न कोई तारा हूँ
रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं

नींद से मेरा त’अल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं

मोड़ होता है जवानी का संभलने के लिए
और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यों हैं

Rahat indori

Kitni pee kaise kati raat mujhe hosh nahi

कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं

रात के साथ गई बात मुझे होश नहीं

मुझको ये भी नहीं मालूम कि जाना है कहाँ
थाम ले कोई मेरा हाथ मुझे होश नहीं

आँसुओं और शराबों में गुजारी है हयात
मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं

जाने क्या टूटा है पैमाना कि दिल है मेरा
बिखरे-बिखरे हैं खयालात मुझे होश नहीं

Rahat indori