Khula hai jhoot ka baazar aao sach bolen

खुला है झूट का बाज़ार आओ सच बोलें
न हो बला से ख़रीदार आओ सच बोलें

सुकूत छाया है इंसानियत की क़द्रों पर
यही है मौक़ा-ए-इज़हार आओ सच बोलें

हमें गवाह बनाया है वक़्त ने अपना
ब-नाम-ए-अज़मत-ए-किरदार आओ सच बोलें

सुना है वक़्त का हाकिम बड़ा ही मुंसिफ़ है
पुकार कर सर-ए-दरबार आओ सच बोलें

तमाम शहर में क्या एक भी नहीं मंसूर
कहेंगे क्या रसन-ओ-दार आओ सच बोलें

बजा के ख़ू-ए-वफ़ा एक भी हसीं में नहीं
कहाँ के हम भी वफ़ा-दार आओ सच बोलें

जो वस्फ़ हम में नहीं क्यूँ करें किसी में तलाश
अगर ज़मीर है बेदार आओ सच बोलें

छुपाए से कहीं छुपते हैं दाग़ चेहरे के
नज़र है आईना-बरदार आओ सच बोलें

‘क़तील’ जिन पे सदा पत्थरों को प्यार आया
किधर गए वो गुनह-गार आओ सच बोलें

Qateel shifai

Wisal ki sarhadon tak aa kar Jamaal tera palat gaya hai

विसाल की सरहदों तक आ कर जमाल तेरा पलट गया है
वो रंग तू ने मेरी निगाहों पे जो बिखेरा पलट गया है

कहाँ की ज़ुल्फ़ें कहाँ के बादल सिवाए तीरा-नसीबों के
मेरी नज़र ने जिसे पुकारा वही अँधेरा पलट गया है

न छाँव करने को है वो आँचल न चैन लेने को हैं वो बाँहें
मुसाफ़िरों के क़रीब आ कर हर इक बसेरा पलट गया है

मेरे तसव्वुर के रास्तों में उभर के डूबी हज़ार आहट
न जाने शाम-ए-अलम से मिल कर कहाँ सवेरा पलट गया है

मिला मोहब्बत का रोग जिस को ‘क़तील’ कहते हैं लोग जिस को
वही तो दीवाना कर के तेरी गली का फेरा पलट गया है

Qateel shifai

Tadapti hai tamannaen kisi aaram se pehle

तड़पती हैं तमन्नाएँ किसी आराम से पहले
लुटा होगा न यूँ कोई दिल-ए-ना-काम से पहले

ये आलम देख कर तू ने भी आँखें फेर लीं वरना
कोई गर्दिश नहीं थी गर्दिश-ए-अय्याम से पहले

गिरा है टूट कर शायद मेरी तक़दीर का तारा
कोई आवाज़ आई थी शिकस्त-ए-जाम से पहले

कोई कैसे करे दिल में छुपे तूफ़ाँ का अंदाज़ा
सुकूत-ए-मर्ग छाया है किसी कोहराम से पहले

न जाने क्यूँ हमें इस दम तुम्हारी याद आती है
जब आँखों में चमकते हैं सितारे शाम से पहले

सुनेगा जब ज़माना मेरी बर्बादी के अफ़साने
तुम्हारा नाम भी आएगा मेरे नाम से पहले

Qateel shifai

Siskiyan leti hui ghamgin hawao chup raho

सिसकियाँ लेती हुई ग़मगीं हवाओ चुप रहो
सो रहे हैं दर्द उन को मत जगाओ चुप रहो

रात का पत्थर न पिघलेगा शुआओं के बग़ैर
सुब्ह होने तक न बोलो हम-नवाओ चुप रहो

बंद हैं सब मय-कदे साक़ी बने हैं मोहतसिब
ऐ गरजती गूँजती काली घटाओ चुप रहो

तुम को है मालूम आख़िर कौन सा मौसम है ये
फ़स्ल-ए-गुल आने तलक ऐ ख़ुश-नवाओ चुप रहो

सोच की दीवार से लग कर हैं ग़म बैठे हुए
दिल में भी नग़मा न कोई गुनगुनाओ चुप रहो

छट गए हालात के बादल तो देखा जाएगा
वक़्त से पहले अँधेरे में न जाओ चुप रहो

देख लेना घर से निकलेगा न हम-साया कोई
ऐ मेरे यारो मेरे दर्द-आशनाओ चुप रहो

क्यूँ शरीक-ए-ग़म बनाते हो किसी को ऐ ‘क़तील’
अपनी सूली अपने काँधे पर उठाओ चुप रहो

Qateel shifai

Shayad mere badan ki ruswai chahta hai

शायद मेरे बदन की रुसवाई चाहता है
दरवाज़ा मेरे घर का बीनाई चाहता है

औक़ात-ए-ज़ब्त उस को ऐ चश्म-ए-तर बता दे
ये दिल समंदरों की गहराई चाहता है

शहरों में वो घुटन है इस दौर में के इंसाँ
गुमनाम जंगलों की पुरवाई चाहता है

कुछ ज़लज़ले समो कर ज़ंजीर की ख़नक में
इक रक़्स-ए-वालेहाना सौदाई चाहता है

कुछ इस लिए भी अपने चर्चे हैं शहर भर में
इक पारसा हमारी रुसवाई चाहता है

हर शख़्स की जबीं पर करते हैं रक़्स तारे
हर शख़्स ज़िंदगी की रानाई चाहता है

अब छोड़ साथ मेरा ऐ याद-ए-नौ-जवानी
इस उम्र का मुसाफ़िर तंहाई चाहता है

मैं जब ‘क़तील’ अपना सब कुछ लुटा चुका हूँ
अब मेरा प्यार मुझ से दानाई चाहता है

Qateel shifai

Phool pe dhool babool pe shabnam

फूल पे धूल बबूल पे शबनम देखने वाले देखता जा
अब है यही इंसाफ़ का आलम देखने वाले देखता जा

परवानों की राख उड़ा दी बाद-ए-सहर के झोंकों ने
शम्मा बनी है पैकर-ए-मातम देखने वाले देखता जा

जाम-ब-जाम लगी हैं मोहरें मय-ख़ानों पर पहरे हैं
रोती है बरसात छमा-छम देखने वाले देखता जा

इस नगरी के राज-दुलारे एक तरह कब रहते हैं
ढलते साए बदलते मौसम देखने वाले देखता जा

मसलहतों की धूल जमी है उखड़े उखड़े क़दमों पर
झिजक झिजक कर उड़ते परचम देखने वाले देखता जा

एक पुराना मदफ़न जिस में दफ़्न हैं लाखों उम्मीदें
छलनी छलनी सीना-ए-आदम देखने वाले देखता जा

एक तेरा ही दिल नहीं घायल दर्द के मारे और भी हैं
कुछ अपना कुछ दुनिया का ग़म देखने वाले देखता जा

कम-नज़रों की इस दुनिया में देर भी है अँधेर भी है
पथराया हर दीदा-ए-पुर-नम देखने वाले देखता जा

Qateel shifai

Manzil Jo Maine paai to shashdar bhi main hi tha

मंज़िल जो मैं ने पाई तो शशदर भी मैं ही था
वो इस लिए के राह का पत्थर भी मैं ही था

शक हो चला था मुझ को ख़ुद अपनी ही ज़ात पर
झाँका तो अपने ख़ोल के अंदर भी मैं ही था

होंगे मेरे वजूद के साए अलग अलग
वरना बरून-ए-दर भी पस-ए-दर भी मैं ही था

पूछ उस से जो रवाना हुए काट कर मुझे
राह-ए-वफ़ा में शाख़-ए-सनोबर भी मैं ही था

आसूदा जिस क़दर वो हुआ मुझ को ओढ़ कर
कल रात उस के जिस्म की चादर भी मैं ही था

मुझ को डरा रही थी ज़माने की हम-सरी
देखा तो अपने क़द के बराबर भी मैं ही था

आईना देखने पे जो नादिम हुआ ‘क़तील’
मुल्क-ए-ज़मीर का वो सिकंदर भी मैं ही था

Qateel shifai

Kya jaane kis khumaar mein kis Josh mein gira

क्या जाने किस ख़ुमार में किस जोश में गिरा
वो फल शजर से जो मेरी आग़ोश में गिरा

कुछ दाएरा से बन गए साथ-ए-ख़याल पर
जब कोई फूल साग़र-ए-मय-नोश में गिरा

बाक़ी रही न फिर वो सुनहरी लकीर भी
तारा जो टूट कर शब-ए-ख़ामोश में गिरा

उड़ता रहा तो चाँद से यारा न था मेरा
घायल हुआ तो वादी-ए-गुल-पोश में गिरा

बे-आबरू न थी कोई लग़्ज़िश मेरी ‘क़तील’
मैं जब गिरा जहाँ भी गिरा होश में गिरा

Qateel shifai

Jab apne etiqad ke mehwar se hat gaya

जब अपने एतिक़ाद के महवर से हट गया
मैं रेज़ा रेज़ा हो के हरीफ़ों में बट गया

दुश्मन के तन पे गाड़ दिया मैं ने अपना सर
मैदान-ए-कार-जार का पाँसा पलट गया

थोड़ी सी और ज़ख़्म को गहराई मिल गई
थोड़ा सा और दर्द का एहसास घट गया

दर-पेश अब नहीं तेरा ग़म कैसे मान लूँ
कैसा था वो पहाड़ जो रस्ते से हट गया

अपने क़रीब पा के मुअत्तर सी आहटें
मैं बारहा सनकती हवा से लिपट गया

जो भी मिला सफ़र में किसी पेड़ के तले
आसेब बन के मुझ से वो साया चिमट गया

लुटते हुए अवाम के घर-बार देख कर
ऐ शहर-यार तेरा कलेजा न फट गया

रक्खेगा ख़ाक रब्त वो इस काएनात से
जो ज़र्रा अपनी ज़ात के अंदर सिमट गया

चोरों का एहतिसाब न अब तक हुआ ‘क़तील’
जो हाथ बे-क़ुसूर था वो हाथ कट गया

Qateel shifai

Halaat se khouf kha raha hoon

हालात से ख़ौफ़ खा रहा हूँ
शीशे के महल बना रहा हूँ

सीने में मेरे है मोम का दिल
सूरज से बदन छुपा रहा हूँ

महरूम-ए-नज़र है जो ज़माना
आईना उसे दिखा रहा हूँ

अहबाब को दे रहा हूँ धोका
चेहरे पे ख़ुशी सजा रहा हूँ

दरिया-ए-फ़ुरात है ये दुनिया
प्यासा ही पलट कर जा रहा हूँ

है शहर में क़हत पत्थरों का
जज़्बात के ज़ख़्म खा रहा हूँ

मुमकिन है जवाब दे उदासी
दर अपना ही खटखटा रहा हूँ

आया न ‘क़तील’ दोस्त कोई
सायों को गले लगा रहा हूँ

Qateel shifai