Bazm

बूए-गुल, नाला-ए-दिल, दूदे चिराग़े महफ़िल
जो तेरी बज़्म से निकला सो परीशाँ निकला।

चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों के ख़ुतूत,
बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला।

Aa ki meri jaan ko karar nahi hai

आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
ताक़ते-बेदादे-इन्तज़ार नहीं है

देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले
नश्शा बअन्दाज़-ए-ख़ुमार नहीं है

गिरिया निकाले है तेरी बज़्म से मुझ को
हाये! कि रोने पे इख़्तियार नहीं है

हम से अबस है गुमान-ए-रन्जिश-ए-ख़ातिर
ख़ाक में उश्शाक़ की ग़ुब्बार नहीं है

दिल से उठा लुत्फे-जल्वाहा-ए-म’आनी
ग़ैर-ए-गुल आईना-ए-बहार नहीं है

क़त्ल का मेरे किया है अहद तो बारे
वाये! अगर अहद उस्तवार नहीं है

तू ने क़सम मैकशी की खाई है “ग़ालिब”
तेरी क़सम का कुछ ऐतबार नहीं है

Mirza Ghalib

Har ek baat pe kehte ho tum ki tu kya hai

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे
वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है

बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में “ग़ालिब” की आबरू क्या है 

Mirza Ghalib

Sehar

तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई

Mai unhe chedu aur kuch na kahe

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें 
चल निकलते, जो मय पिये होते 

क़हर हो, या बला हो, जो कुछ हो 
काश कि तुम मेरे लिये होते 

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था 
दिल भी, या रब, कई दिये होते 

आ ही जाता वो राह पर, “ग़ालिब” 
कोई दिन और भी जिये होते

Mirza Ghalib

Dil hi to hai na sang-o-khisht

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों

दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं 
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों 

जब वो जमाल-ए-दिलफ़रोज़, सूरते-मेह्रे-नीमरोज़ 
आप ही हो नज़ारा-सोज़, पर्दे में मुँह छिपाये क्यों 

दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जांसितां, नावक-ए-नाज़ बे-पनाह 
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही, सामने तेरे आये क्यों

क़ैदे-हयातो-बन्दे-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं 
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों 

हुस्न और उसपे हुस्न-ज़न रह गई बुल्हवस की शर्म 
अपने पे एतमाद है ग़ैर को आज़माये क्यों 

वां वो ग़ुरूर-ए-इज़्ज़-ओ-नाज़ यां ये हिजाब-ए-पास-वज़अ़
राह में हम मिलें कहाँ, बज़्म में वो बुलायें क्यों 

हाँ वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही 
जिसको हो दीन-ओं-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यों

“ग़ालिब”-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन-से काम बन्द हैं 
रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों

Ek ek katre ka mujhe dena pada hisaab

एक-एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ून-ए-जिगर, वदीअ़त-ए-मिज़गान-ए-यार था

अब मैं हूँ और मातम-ए-यक-शहर-आरज़ू
तोड़ा जो तूने आईना तिमसाल-दार था

गलियों में मेरी नाश को खींचे फिरो कि मैं
जां-दादा-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था

मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल
हर ज़र्रा मिस्ल-ए-जौहर-ए-तेग़ आबदार था

कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब
देखा तो कम हुए पे ग़म-ए-रोज़गार था

किस का जुनून-ए-दीद तमन्ना-शिकार था
आईना-ख़ाना वादी-ए-जौहर-ग़ुबार था

किस का ख़याल आईना-ए-इन्तिज़ार था
हर बरग-ए-गुल के परदे में दिल बे-क़रार था

जूं ग़ुन्चा-ओ-गुल आफ़त-ए-फ़ाल-ए-नज़र न पूछ
पैकां से तेरे जलवा-ए-ज़ख़म आशकार था

देखी वफ़ा-ए-फ़ुरसत-ए-रंज-ओ-निशात-ए-दहर
ख़मियाज़ा यक दराज़ी-ए-उमर-ए-ख़ुमार था

सुबह-ए-क़यामत एक दुम-ए-गुरग थी असद
जिस दश्त में वह शोख़-ए-दो-आ़लम शिकार था

Mirza Ghalib

Bas ki dushwar hai har kaam ka aasan hona

बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना

गिरियां चाहे है ख़राबी मेरे काशाने की
दर-ओ-दीवार से टपके है बयाबां होना

वाए, दीवानगी-ए-शौक़ कि हरदम मुझको
आप जाना उधर और आप ही हैरां होना

जल्वा अज़-बसकि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है
जौहर-ए-आईना भी चाहे है मिज़गां होना

इशरते-क़त्लगहे-अहले-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना

ले गये ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-निशात
तू हो और आप बसद-रंग गुलिस्तां होना

इशरत-ए-पारा-ए-दिल ज़ख़्म-ए-तमन्ना ख़ाना
लज़्ज़त-ए-रेश-ए-जिग़र ग़र्क़-ए-नमकदां होना

की मेरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा
हाय उस ज़ूद-पशेमां का पशेमां होना

हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ‘ग़ालिब’
जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबां होना

Ye na thi hamari kismat ke visaal-e-yaar hota

ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता 
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता 

तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना 
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता 

तेरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अ़हद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता 

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को 
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता 

ये कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता 

रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता 
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता 

ग़म अगर्चे जां-गुसिल है, पर कहां बचे कि दिल है 
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता 

कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है 
मुझे क्या बुरा था मरना? अगर एक बार होता 

हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दरिया 
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता 

उसे कौन देख सकता, कि यग़ाना है वो यकता
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता 

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान “ग़ालिब”! 
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता

Mirza Ghalib