Har ek soorat har ek tasweer

हर इक सूरत हर इक तस्वीर मुबहम होती जाती है
इलाही, क्या मिरी दीवानगी कम होती जाती है 

ज़माना गर्मे-रफ्तारे-तरक्क़ी होता जाता है 
मगर इक चश्मे -शायर है की पुरनम होती जाती है 

यही जी चाहता है छेड़ते ही छेड़ते रहिये 
बहुत दिलकश अदाए-हुस्ने-बरहम होती जाती है 

तसव्वुर रफ़्ता-रफ़्ता इक सरापा बनाता जाता है
वो इक शै जो मुझी में है ,मुजस्सिम होती जाती है 

वो रह-रहकर गले मिल-मिलके रुख़सत होते जाते है
मिरी आँखों से या रब ! रौशनी कम होती जाती है 

‘जिगर’ तेरे सुकूते-ग़म ने ये क्या कह दिया उनसे 
झुकी पड़ती है नज़रे ,आंख पुरनम होती जाती है

Jigar moradabadi

Ye din bahar ke ab ke bhi raas na aa sake

ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके 
कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके 

मिरी तबाही ए दिल पर तो रहम खा न सके 
जो रोशनी में रहे रोशनी को पा न सके 

न जाने आह कि उन आँसूओं पे क्या गुज़री 
जो दिल से आँख तक आये मिज़ा तक आ न सके 

रह-ए-ख़ुलूस-ए-मुहब्बत के हादसात-ए-जहाँ 
मुझे तो क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके

करेंगे मर के बक़ाए-दवाम क्या हासिल 
जो ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके 

नया ज़माना बनाने चले थे दीवाने 
नई ज़मीं नया आसमाँ बना न सके

Jigar moradabadi

Fursat kahan ki ched karen aasman se ham

फ़ुर्सत कहाँ कि छेड़ करें आसमाँ से हम
लिपटे पड़े हैं लज़्ज़ते-दर्दे-निहाँ से हम

इस दर्ज़ा बेक़रार थे दर्दे-निहाँ से हम 
कुछ दूर आगे बढ़ गए उम्रे-रवाँ से हम

ऐ चारासाज़ हालते दर्दे-निहाँ न पूछ
इक राज़ है जो कह नहीं सकते ज़बाँ से हम

बैठे ही बैठे आ गया क्या जाने क्या ख़याल 
पहरों लिपट के रोए दिले-नातवाँ  से हम

Jigar moradabadi

Mar ke bhi kab tak nigaahe shauk ko ruswa karen

मर के भी कब तक निगाहे-शौक़ को रुस्वा करें
ज़िन्दगी तुझको कहाँ फेंक आएँ आख़िर क्या करें

ज़ख़्मे-दिल मुम्किन नहीं तो चश्मे-दिल ही वा करें
वो हमें देखें न देखें हम उन्हें देखा करें

Jigar moradabadi

Aankhon ka tha kusoor na dil ka kusoor tha

आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था

वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नज़र को नज़र का क़ुसूर था

कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर था
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा ज़रूर था

लगते ही ठेस टूट गया साज़े-आरज़ू
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था

ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ूने-तमन्ना  ज़रूर था

साक़ी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था

जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था

देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा
इस दर्ज़ा पी गया था कि नश्शे में चूर था

Jigar moradabadi

Muhabbat mein kya kya mukam aa rahe hai

मोहब्बत में क्या-क्या मुक़ाम आ रहे हैं
कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं

ये कह-कह के हम दिल को बहला रहे हैं
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं

वो अज़-ख़ुद ही नादिम हुए जा रहे हैं
ख़ुदा जाने क्या ख़याल आ रहे हैं

हमारे ही दिल से मज़े उनके पूछो
वो धोके जो दानिस्ता हम खा रहे हैं

जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है
वफ़ा करके हम भी तो शरमा रहे हैं

वो आलम है अब यारो-अग़ियार कैसे
हमीं अपने दुश्मन हुए जा रहे हैं

मिज़ाजे-गिरामी की हो ख़ैर यारब
कई दिन से अक्सर वो याद आ रहे हैं

Jigar moradabadi

Dil ko sukoon rooh ko aaram aa gaya

दिल को सुकून रूह को आराम आ गया 
मौत आ गयी कि दोस्त का पैगाम आ गया 

जब कोई ज़िक्रे-गर्दिशे-अय्याम आ गया 
बेइख्तियार लब पे तिरा नाम आ गया 

दीवानगी हो, अक्ल हो, उम्मीद हो कि यास 
अपना वही है वक़्त पे जो काम आ गया

दिल के मुआमलात में नासेह ! शिकस्त क्या 
सौ बार हुस्न पर भी ये इल्ज़ाम आ गया 

सैयाद शादमां है मगर ये तो सोच ले 
मै आ गया कि साया तहे – दाम आ गया 

दिल को न पूछ मार्काए – हुस्नों – इश्क़ में
क्या जानिये गरीब कहां काम आ गया 

ये क्या मुक़ामे-इश्क़ है ज़ालिम कि इन दिनों 
अक्सर तिरे बगैर भी आराम आ गया

Jigar moradabadi

Na jan dil banegi na dil jaan hoga

न जाँ दिल बनेगी न दिल जान होगा
ग़मे-इश्क़ ख़ुद अपना उन्वान होगा

ठहर ऐ दिले-दर्दमंदे-मोहब्बत
तसव्वुर किसी का परेशान होगा

मेरे दिल में भी इक वो सूरत है पिन्हाँ
जहाँ हम रहेंगे ये सामान होगा

गवारा नहीं जान देकर भी दिल को
तिरी इक नज़र का जो नुक़सान हेगा

चलो देख आएँ `जिगर’ का तमाशा
सुना है वो क़ाफ़िर मुसलमान होगा

Jigar moradabadi

Wo adaye dilbari ho ki nawae aashikana

वो अदाए-दिलबरी हो कि नवाए-आशिक़ाना।
जो दिलों को फ़तह कर ले, वही फ़ातहेज़माना॥

कभी हुस्न की तबीयत न बदल सका ज़माना।
वही नाज़े-बेनियाज़ी वही शाने-ख़ुसरवाना॥

मैं हूँ उस मुक़ाम पर अब कि फ़िराक़ोवस्ल कैसे?
मेरा इश्क़ भी कहानी, तेरा हुस्न भी फ़साना॥

तेरे इश्क़ की करामत यह अगर नहीं तो क्या है।
कभी बेअदब न गुज़रा, मेरे पास से ज़माना॥

मेरे हमसफ़ीर बुलबुल! मेरा-तेरा साथ ही क्या?
मैं ज़मीरे-दश्तोदरिया तू असीरे-आशियाना॥

तुझे ऐ ‘जिगर’! हुआ क्या कि बहुत दिनों से प्यारे।
न बयाने-इश्को़-मस्ती न हदीसे-दिलबराना॥

Jigar moradabadi

Zarron se baate karte hai diwarodar se ham

ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥

कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥

इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥

Jigar moradabadi