Tumhe yaad ho ke na yaad ho

वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो 
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो

वो नये गिले वो शिकायतें वो मज़े-मज़े की हिकायतें 
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो के न याद हो

कोई बात ऐसी अगर हुई जो तुम्हारे जी को बुरी लगी 
तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो के न याद हो

सुनो ज़िक्र है कई साल का, कोई वादा मुझ से था आप का
वो निबाहने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हें याद हो के न याद हो

कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हम से तुम से भी राह थी 
कभी हम भी तुम भी थे आश्ना, तुम्हें याद हो के न याद हो

हुए इत्तेफ़ाक़ से गर बहम, वो वफ़ा जताने को दम-ब-दम 
गिला-ए-मलामत-ए-अर्क़बा, तुम्हें याद हो के न याद हो

वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे पेश्तर, वो करम के था मेरे हाल पर 
मुझे सब है याद ज़रा-ज़रा, तुम्हें याद हो के न याद हो

कभी बैठे सब में जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तगू 
वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो के न याद हो

किया बात मैं ने वो कोठे की, मेरे दिल से साफ़ उतर गई 
तो कहा के जाने मेरी बाला, तुम्हें याद हो के न याद हो

वो बिगड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का 
वो नहीं-नहीं की हर आन अदा, तुम्हें याद हो के न याद हो

जिसे आप गिनते थे आशना जिसे आप कहते थे बावफ़ा 
मैं वही हूँ “मोमिन”-ए-मुब्तला तुम्हें याद हो के न याद हो

Ishq

उम्र तो सारी क़टी इश्क़-ए-बुताँ में ‘मोमिन’
आखिरी उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे

Tum bhi rehne lage khafa sahab

तुम भी रहने लगे ख़फ़ा साहब
कहीं साया मेरा पड़ा साहब

है ये बन्दा ही बेवफ़ा साहब
ग़ैर और तुम भले भला साहब

क्यों उलझते हो जुम्बिशे-लब से
ख़ैर है मैंने क्या कहा साहब

क्यों लगे देने ख़त्ते-आज़ादी
कुछ गुनह भी ग़ुलाम का साहब

दमे-आख़िर भी तुम नहीं आते
बन्दगी अब कि मैं चला साहब

सितम, आज़ार, ज़ुल्म, जोरो-जफ़ा
जो किया सो भला किया साहब

किससे बिगड़े थे,किसपे ग़ुस्सा थे
रात तुम किसपे थे ख़फ़ा साहब

किसको देते थे गालियाँ लाखों
किसका शब ज़िक्रे-ख़ैर था साहब

नामे-इश्क़े-बुताँ न लो ‘मोमिन’
कीजिए बस ख़ुदा-ख़ुदा साहब

Hum samajhte hai aazmane ko

हम समझते हैं आज़माने को
उज्र कुछ चाहिए सताने को

सुबहे-इशरत है न वह शामे-विसाल
हाय क्या हो गया ज़माने को

बुलहवस रोये मेरे गिरियाँ पे अब
मुँह कहाँ तेरे मुस्कुराने को

बर्क़ का आसमाँ पर है दिमाग़
फूँक कर मेरे आशियाने को

रोज़े-मशहर भी होश अगर आया
जायेंगे हम शराबख़ाने को

कोई दिन हम जहाँ में बैठे हैं
आसमाँ के सितम उठाने को

संग-ए-दर से तेरे निकाली आग
हमने दुश्मन का घर जलाने को

चल के का’बे में सिजदा कर ‘मोमिन’
छोड़ उस बुत के आस्ताने को