Fool ke baad falna jaroori laga

फूल के बाद फलना ज़रूरी लगा,
भूमिकाएँ बदलना ज़रूरी लगा।
दर्द ढलता रहा आँसुओं में मगर
दर्द शब्दों में ढलना ज़रूरी लगा।
‘कूपमंडूक’ छवि को नमस्कार कर,
घर से बाहर निकलना ज़रूरी लगा।
अपने द्वंद्वों से दो-चार होते हुए,
हिम की भट्टी में जलना ज़रूरी लगा।
मोमबत्ती से उजियारे की चाह में,
मोम बन कर पिघलना ज़रूरी लगा।
उनके पैरों से चलकर न मंज़िल मिली,
अपने पाँवों पे चलना ज़रूरी लगा।
आदमीयत की रक्षा के परिप्रेक्ष्य में
विश्व-युद्धों का टलना ज़रूरी लगा।

Zaheer quraishi

Muskurana bhi ek chumbak hai

मुस्कुराना भी एक चुम्बक है,
मुस्कुराओ, अगर तुम्हें शक है!
उसको छू कर कभी नहीं देखा,
उससे सम्बन्ध बोलने तक है।
डाक्टर की सलाह से लेना,
ये दवा भी ज़हर-सी घातक है।
दिन में सौ बार खनखनाती है
एक बच्चे की बंद गुल्लक है।
उससे उड़ने की बात मत करना,
वो जो पिंजरे में अज बंधक है।
हक्का-बक्का है बेवफ़ा पत्नी,
पति का घर लौटना अचानक है!
‘स्वाद’ को पूछना है ‘बंदर’ से,
जिसके हाथ और मुँह में अदरक है।

Zaheer quraishi

Gagan tak maar karna aa gaya hai

गगन तक मार करना आ गया है, 
समय पर वार करना आ गया है । 

उन्हें……कविता में बौनी वेदना को, 
कुतुब-मीनार करना आ गया है ! 

धुएँ की स्याह चादर चीरते ही, 
घुटन को पार करना आ गया है । 

अनैतिक व्यक्ति के अन्याय का अब, 
हमें प्रतिकार करना आ गया है । 

खुले बाजार में विष बेचने को, 
कपट व्यवहार करना आ गया है । 

हम अब जितने भी सपने देखते हैं, 
उन्हें साकार करना आ गया है । 

शिला छूते ही, नारी बन गई जो, 
उसे अभिसार करना आ गया है

Zaheer quraishi

Chitrlikhit muskaan saji hai chehron par

चित्रलिखित मुस्कान सजी है चेहरों पर, 
मुस्कानों की ?सेल? लगी है चेहरों पर । 

शहरों में, चेहरों पर भाव नहीं मिलते, 
भाव-हीनता ही पसरी है चेहरों पर । 

लोग दूसरों की तुक-तान नहीं सुनते, 
अपना राग, अपनी डफली है चेहरों पर । 

दोस्त ठहाकों की भाषा ही भूल गए, 
एक खोखली हँसी लदी है चेहरों पर । 

लोगों ने जो भाव छिपाए थे मन में, 
उन सब भावों की चुगली है चेहरों पर । 

मीठे पानी वाली नदियाँ सूख गई, 
खारे पानी की नद्दी है चेहरों पर । 

एक गैर-मौखिक भाषा है बहुत मुखर, 
शब्दों की भाषा गूँगी है चेहरों पर ।

Zaheer quraishi

Sapne anek the to miley swapnfal anek

सपने अनेक थे तो मिले स्वप्न-फल अनेक,
राजा अनेक, वैसे ही उनके महल अनेक। 

यूँ तो समय-समुद्र में पल यानी एक बूंद, 
दिन, माह, साल रचते रहे मिलके पल अनेक। 

जो लोग थे जटिल, वो गए हैं जटिल के पास 
मिल ही गए सरल को हमेशा सरल अनेक। 

झगडे हैं नायिका को रिझाने की होड के, 
नायक के आसपास ही रहते हैं खल अनेक। 

बिखरे तो मिल न पाएगी सत्ता की सुन्दरी, 
संयुक्त रहके करते रहे राज दल अनेक। 

लगता था-इससे आगे कोई रास्ता नहीं, 
कोशिश के बाद निकले अनायास हल अनेक। 

लाखों में कोई एक ही चमका है सूर्य-सा 
कहने को कहने वाले मिलेंगे ग़ज़ल अनेक।

zaheer quraishi

Aankhon ki kor ka bada hissa taral mila

आँखों की कोर का बडा हिस्सा तरल मिला,
रोने के बाद भी, मेरी आँखों में जल मिला। 

उपयोग के लिए उन्हें झुग्गी भी चाहिए, 
झुग्गी के आसपास ही उनका महल मिला। 

आश्वस्त हो गए थे वो सपने को देख कर, 
सपने से ठीक उल्टा मगर स्वप्न-फल मिला। 

इक्कीसवीं सदी में ये लगता नहीं अजीब, 
नायक की भूमिका में लगातार खल मिला। 

पूछा गया था प्रश्न पहेली की शक्ल म, 
लेकिन, कठिन सवाल का उत्तर सरल मिला। 

उसको भी कैद कर न सकी कैमरे की आँख, 
जीवन में चैन का जो हमें एक पल मिला। 

ऐसे भी दृश्य देखने पडते हैं आजकल, 
कीचड की कालिमा में नहाता कमल मिला।

Zaheer quraishi

Unhe dekha gaya khilte kamal tak

उन्हें देखा गया खिलते कमल तक,
कोई झाँका नहीं झीलों के तल तक। 

तो परसों, फिर न उसकी राह तकना, 
जो भूला आज का, लौटा न कल तक। 

न जाने, कब समन्दर आ गए हैं, 
हमारी अश्रु-धाराओं के जल तक। 

सियासत में उन्हीं की पूछ है अब, 
नहीं सीमित रहे जो एक दल तक। 

यही तो टीस है मन में लता के, 
हुई पुष्पित, मगर, पहुँची न फल तक। 

हजारों कलयुगी शंकर हैं ऐसे- 
पचाना जानते हैं जो गरल तक। 

जो बारम्बार विश्लेषण करेगा, 
पहुँच ही जाएगा वो ठोस हल तक।

Zaheer quraishi

Hamare bhay pe pabandi lagate hai

हमारे भय पे पाबंदी लगाते हैं 
अंधेरे में भी जुगनू मुस्कुराते हैं 

बहुत कम लोग कर पाते हैं ये साहस 
चतुर चेहरों को आईना दिखाते हैं 

जो उड़ना चाहते हैं उड़ नहीं पाते 
वो जी भर कर पतंगों को उड़ाते हैं 

नहीं माना निकष हमने उन्हें अब तक 
मगर वो रोज़ हमको आज़माते हैं 

उन्हें भी नाच कर दिखलाना पड़ता है 
जो दुनिया भर के लोगों को नचाते हैं 

बहुत से पट कभी खुलते नहीं देखे 
यूँ उनको लोग अक्सर खटखटाते हैं 

हमें वो नींद में सोने नहीं देते 
हमारे स्वप्न भी हम को जगाते हैं

Zaheer quraishi

Sab ki aankho mein neer chhod gaye

सब की आँखों में नीर छोड़ गए
जाने वाले शरीर छोड़ गए 

राह भी याद रख नहीं पाई 
क्या कहाँ राहगीर छोड़ गए 

लग रहे हैं सही निशाने पर 
वो जो व्यंगों के तीर छोड़ गए 

हीर का शील भंग होते ही
रांझे अस्मत पे चीर छोड़ गए 

एक रुपया दिया था दाता ने 
सौ दुआएं फ़क़ीर छोड़ गए 

उस पे क़बज़ा है काले नागों का 
दान जो दान-वीर छोड़ गए 

हम विरासत न रख सके क़ायम 
जो विरासत कबीर छोड़ गए

Zahseer quraishi

Ghar chhin gaye to sadko pe beghar badal gaye

घर छिन गए तो सड़कों पे बेघर बदल गए
आँसू, नयन— कुटी से निकल कर बदल गए

अब तो स्वयं—वधू के चयन का रिवाज़ है
कलयुग शुरू हुआ तो स्वयंवर बदल गए

मिलता नहीं जो प्रेम से, वो छीनते हैं लोग
सिद्धान्त वादी प्रश्नों के उत्तर बदल गए

धरती पे लग रहे थे कि कितने कठोर हैं
झीलों को छेड़ते हुए कंकर बदल गए

होने लगे हैं दिन में ही रातों के धत करम
कुछ इसलिए भि आज निशाचर बदल गए

इक्कीसवीं सदी के सपेरे हैं आधुनिक
नागिन को वश में करने के मंतर बदल गए

बाज़ारवाद आया तो बिकने की होड़ में
अनमोल वस्तुओं के भी तेवर बदल गए.
Zaheer quraishi